Saturday, April 10, 2010


अतुल मिश्र 
अमरीका जाने के कई सारे फायदे भारतीय प्रधानमंत्री को होते हैं. एक तो पड़ोसी मुल्कों की शिकायतें करने का बहाना मिल जाता है और दूसरा अगर ज़रुरत पड़े तो वहां के राष्ट्रपति का मूड देखकर उनको लादेन सहित अन्य दहशतगर्दों के बारे में अपनी ख़ुफ़िया जानकारियां दी जा सकती हैं कि वे इस समय पाकिस्तान में छुपे हुए हैं. इस तरह एक तीर से कई सारे निशाने लगाए जा सकते हैं. वे भी खुश कि क्या गोपनीय जानकारी हासिल हो गयी और उधर पड़ोसी के दिमाग भी दुरुस्त कि कहीं अमरीका हमला ना कर दे या उधार देने से इन्कार ना कर दे. शिखर-वार्ता से अलग जब वक़्त मिले तब प्रधानमंत्री ने धीरे से ओबामा के कान में कह दिया कि अमरीका का दुश्मन नंबर वन अभी भी वहीँ छिपा हुआ है, जहां के बारे में अमरीका ने सख्त मना किया हुआ है कि वह वहां हरगिज़ नहीं छिपे.

हमारे प्रधानमंत्री को अमरीका से उतना ही प्यार है, जितना अपनी जवानी के दिनों में वे अपने कॉलेज की किसी लड़की को करते रहे होंगे. कई मर्तबा यह भी देखा गया कि वे अमरीका जाकर हंसने, मुस्कराने लगते हैं. अन्य देशों में जाकर वे ऐसा नहीं कर पाते. ख़ासतौर से जब परमाणु हथियारों के इस्तेमाल ना करने को लेकर कोई सवालिया वार्ता होती है, तो वे मुस्कराने लगते हैं. इसके कई सारे अर्थ लगाए जा सकते हैं. एक तो यह भी लगाया जा सकता है कि वे इस सवाल को ही बुनियादी तौर पर ग़लत मानते हैं और दूसरा यह कि वे सोच रहे हो सकते हैं कि यार, हमें परमाणु हथियार इस्तेमाल ना करने की नसीहत देकर पड़ोसी मुल्कों को क्या बताया जा रहा कि तुम अपने सारे परमाणु हथियार हमारे मुल्क में झोंक दो और हम कुछ नहीं कहेंगे या फिर उस पोज़ीशन में ही नहीं रहेंगे कि कुछ कह सकें.

शिखर-वार्ताएं हमेशा ज़मीन पर ही होती हैं. यह नहीं कि इनके लिए पर्वत के शिखरों पर ही जाना  पड़े. इस किस्म की वार्ताओं को ' शिखर-वार्ताएं' ही क्यों कहा जाता है, इस पर हमारे मित्र राम भरोसे का मानना है कि यहां दुनिया के तमाम देशों की बातचीतें इतनी ज़्यादा होती हैं कि उनका एक शिखर सा बन जाता है, इसलिए ये शिखर वार्ताएं कहलाती हैं. अपने मित्र के इस ज्ञान पर बिना नाज़ किये हुए हम इसे स्वीकार लेते हैं. शिखर वार्ताओं का हल भी अन्य सभी छोटी-मोटी वार्ताओं की तरह यही निकलता है कि इसका असली हल अगली शिखर वार्ता में ही निकलेगा. 

ओबामा ने कुछ सोचकर ही इस शिखर वार्ता का आयोजन किया होगा. बहुत दिनों तक अगर वार्ताएं ना हों तो अमरीका की जनता को लगता होगा कि उनके मुल्क में कुछ हो ही नहीं रहा, जिससे लगे कि हम दहशतगर्दी के ख़िलाफ हैं और लादेन आदि को अभी भूले नहीं हैं. व्हाईट-हाउस पर दवाब पड़ा होगा कि कुछ वार्ता-शार्ता जैसे काम करें ताकि कुछ हल ना निकलने की दिशा में कुछ किया जा सके. किसी  भी मुल्क में किसी भी वार्ता का कोई हल कभी निकला हो, ऐसा हमें याद नहीं आ रहा. फिर भी अगर यह शिखर-वार्ता की जा रही है तो इसके भी हल ना निकलने का हमें इंतज़ार करना होगा, ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रुरत भावी वार्ताएं करने के काम आएं.