बम-धमाके और इल्ज़ाम
Friday, April 16, 2010 व्यंग्य
अतुल मिश्र
बम-धमाके होने के बाद हम इतना ज़रूर सोचते हैं कि होने के लिहाज़ से इन्हें नहीं होना चाहिए था और इनके पीछे जिन लोगों का हाथ है, उनको उनके हाथों सहित जल्दी से जल्दी गिरफ्तार कर लेना चाहिए. हमेशा की तरह अगर वे गिरफ्त में नहीं आते हैं, तो पड़ोसी मुल्क से कहना चाहिए कि वे हमें गिरफ्तार करके दे, ताकि हम उन पर कोई भी ऐसी कार्यवाही कर सकें, जो उचित लगने के हिसाब से उचित हो. धमाके होने के बाद सरकार सोचती है कि इसके पीछे किनका हाथ दिखाया जाना है कि हो सकता है ? बमों के टुकड़ों को जोड़कर हिसाब लगा लिया जाता है कि इस बार भी इनके पीछे विरोधी दलों की कोई साज़िश ना होकर दहशतगर्दों की खुराफात ही लगती है और जिसे बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.एक ज़माना वह भी था, जब हवा में कोई जहाज भी अगर क्रैश हो गया तो सरकारें अपने विरोधियों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराती थीं कि उन्होंने ही नीचे से फूंक मार कर कोई हरकत की है, जो इस तरह का ख़तरनाक हादसा हो गया. सरकारों पर तब शायद इसके सिवाय कोई काम नहीं था कि किसी तरह पब्लिक के सामने विरोधी दलों को नीचा दिखाया जाये कि देखो, तुम जिन्हें वोट देने की सोच रहे हो, वे लोग किस किस्म के हैं ? पब्लिक भी तब नई-नई अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद होकर चुकी थी, लिहाज़ा इस बात को मान लिया करती थी कि हां, हो सकता है कि इन्हीं लोगों ने ऐसा किया हो. तब आतंकवादी नहीं हुआ करते थे और सरकारों को यह प्रॉब्लम थी कि इस घटना का ठीकरा किसके सिर पर फोड़ा जाए ?
आई.पी.एल. मैच से ठीक पहले जिस किस्म के बम-धमाके हुए हैं, उनके बारे में अभी यह सोचा नहीं जा सका है कि किन पर इल्ज़ाम लगाए जाएं कि ये ही असली दोषी हैं और अगर वे हाथ आ गये तो जिन्हें बख्शा नहीं जाएगा. सरकार और उसके नुमाइंदे बहुत सोच समझकर सारे काम करते हैं. सरकार किसी की भी हो, सब की सोच वैसी ही होती है, जैसी कि सरकार चलाये रखने के प्वाइंट ऑफ व्यू से होनी चाहिए. हर सरकार का यह नैतिक फ़र्ज़ बनता है कि वह घटना होने के फ़ौरन बाद ही यह ऐलान कर दे कि इस कांड का खुलासा भी अन्य कांडों की तरह जल्दी ही कर दिया जाएगा. पब्लिक समझ जाती है कि अब इस कांड के खुलासे के लिए, जब तक कई तरह की शिखर-वार्ताएं नहीं होंगी, तब तक कुछ नहीं हो पायेगा.
हमारे मुल्क की पुलिस भी इतने क़ाबिल है कि वो पहले बम के चिथड़े बटोरती है और उसके बाद यह सोचती है कि अब जो लोग इस हादसे में मारे गए हैं, उन्हें तत्काल लगने वाली कौन सी सहायता दी जाये कि वे ज़िन्दा होकर इस घटना के चश्मदीद गवाह बन सकें ? घायलों के साथ भी वह कुछ इसी तरह पेश आती है. घायल पड़ा हुआ कराह रहा है और पुलिस पूछने में लगी है कि " कितने आदमी थे ? कैसे थे और कहां के रहने वाले लग रहे थे ? " घायल भी सोचता है कि यह इंडियन पुलिस है, बता दो, वरना ये खुद जाकर भर्ती होने के लिए अस्पताल भी नहीं जाने देंगे. मुर्दों से भी पुलिस बयान ले लेती है कि मरने से पहले उन्होंने क्या देखा ? सरकार को यह कहने को हो जाता है कि घटना की पूरी जांच कर ली गयी है और इस जांच की भी पूरी जांच होनी है कि सही भी है या नहीं. इस अंतिम जांच के पूरी होने तक इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता कि किन का हाथ है ? विरोधी दलों के नेताओं का या पड़ोसी मुल्क का ?
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