Sunday, April 25, 2010

बवाल-ए-फोन-टेपिंग


           अतुल मिश्र 

    विपक्षी दलों की फोन-टेपिंग का मामला जब सामने आया तो कई नेताओं की दिन की नींद और रात का चैन ( जो ज़ाहिर है की बिस्तरों पर ही मिलता है ) अचानक गायब हो गया. सुबह संसद में सोने वाले नेता भी जाग गए की पता नहीं रात में होने वाली हमारी कौन सी सीक्रेट बात रिकॉर्ड कर ली गयी हो ? क्या पता कि रामकली से घर जल्दी आने की बात कहकर लाजवती यानि लज्जो से होटल जल्दी पहुंचने की बात हो या आई.पी.एल.के घपलों में अपनी हिस्सेदारी से मुक्त होने के जुगाड़ की कोई बात की गयी हो. कल रात भर नेताओं के हाथ-पैर फूले रहे कि पता नहीं हमारी कौन सी 'ह्युमन वीकनेस' यानि मानवीय कमज़ोरी पब्लिक के सामने लाने की साज़िश रची जा रही हो कि कभी इलेक्शन में खड़े होना तो  अलग, नामांकन कराने लायक पोज़ीशन भी ना रहे हमारी.
    आज सुबह से ही संसद की इमारत यह सोचने में लगी थी कि मैंने पता नहीं कौन से ऐसे बुरे कर्म अपने पिछले जन्म में किये थे, जो आज उनकी सज़ा एक शोरमचाऊ इमारत के रूप में जन्म पाकर भुगतनी पड़ रही है. जिन लोगों के फटे हुए गले पहले से ही इस लायक नहीं हैं कि वे उन्हें और ज़्यादा फाड़ सकें, वे भी गला फाड़-फाड़कर कह रहे हैं कि " यह जो कुछ भी हुआ या अभी भी हो रहा है, वह लोकतंत्र के मुंह पर ( अगर वह वाक़ई में कहीं दिखता है तो ) एक ना पड़ने लायक तमाचा है. " संसद के उस वीरान कोने में, जहां लोग बीड़ियों और सिगरेटों के टोंटे फ़ेंक दिया करते है, लोकतंत्र खड़ा हुआ सोच रहा था कि इस मुल्क के नेता हर मसले में मेरे मुंह पर ही तमाचा क्यों पड़वाते हैं, खुद के मुंह पर क्यों नहीं ?
    " यह हमारी गोपनीयता के अधिकारों का हनन है और इसे जब तक हम यह सरकार बदलकर अपनी सरकार ना ले आयें, नहीं होने देंगे. " किसी ऐसे विपक्षी सांसद की आवाज़ उनके गले में से बार-बार कुछ सोचते हुए निकलने के प्रयास करती है, जो पिछले दिनों ही अपने गले में आज़ादी के बाद से जमे बलगम को साफ़ कराके अमरीका से लौटे थे.
    " यह सरासर ज़्यादती है, तानाशाही है और मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि... वो क्या नाम है उसका.....लोकतांत्रिक.....लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास है. " कोने में खड़े लोकतंत्र का मन कर रहा था कि वह अभी उस सांसद का गला पकड़ ले, जिसने इस बार फिर उसके ह्रास होने जैसी कोई गन्दी बात की है. खुद के चरित्र का कितना ह्रास कर लिया है इसने, यह कभी नहीं सोचा इस नेता ने ? लोकतंत्र आज कुछ ज़्यादा ही दुखी था.
    " सरकार को हम सबसे और इस देश की जनता से माफ़ी मांगनी होगी कि इस तरह की हरकतें वह फिर नहीं करेगी. " किसी ऐसे सांसद की आवाज़ इस बार सदन में गूंजी, जो पहले कभी सरकार में मंत्री-पद पर था और अभी भी उम्मीद में था कि उसे फिर से सरकार में अपनी हिस्सेदारी वापस मिल जायेगी.
    संसद में इस फोन-टेपिंग प्रकरण के विरुद्ध सबसे ज़्यादा गला उन्हीं लोगों ने फाड़ा था, जो पिछले कई महीनों से खुलेआम आई.पी.एल., मैच- फिक्सिंग, सट्टे और महिला-मित्रों के संसर्ग में थे और अपने हिस्सेदारों से स्वीटजरलैंड में बैंक-खाते खोलने की प्रक्रियाएं पूछ रहे थे. सबसे ज़्यादा हंगामा यही लोग कर रहे थे. सरकार से माफ़ी मांगने की मांग करने वाले लोग वे थे, जिनकी सोच यह थी कि अगर माफ़ी मांग ली तो ठीक और अगर शर्म या किन्हीं अडचनों की वजह नहीं मांगी, तो उनकी सरकार को समर्थन दे देंगे. समर्थन देने में क्या घिस रहा है ? लेकिन अगर समर्थन नहीं दिया तो सरकार का तो कुछ नहीं घिसेगा, मगर हमारा सब कुछ घिस जाएगा.
    

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