Saturday, March 13, 2010

मच्छर और मिलावट खोरी



                             अतुल मिश्र 
    जिसे हम मच्छरों की भिनभिनाहट समझ रहे थे, वह मच्छरों का आपसी वार्तालाप था और जो निरंतर किसी ख़त्म ना होने वाले शास्त्रीय संगीत की तरह जारी था-
    "इंसानों के खून में अब वो वाली बात नहीं रही, जो हमारे पूर्वजों के ज़माने में हुआ करती थी. तब खून चूसने का भी अपना अलग ही मज़ा था. लोगबाग बिना पंखों या एसी-कूलर के रहते थे और कितना ही खून चूसो, खर्राटे लेकर सोते रहते थे." एक बूढ़ा सा मच्छर अपने बच्चों को वह ज्ञान दे रहा था, जो इतिहास से ताल्लुक रखने के बावज़ूद दिलचस्प था.
    "तो क्या उस वक़्त खोज ना हो पाने की वजह से मच्छरमार दवाओं का चलन नहीं था ?" मच्छर के अज्ञात बच्चों की तरफ से सवाल हुआ.
    "नहीं, तब लोग मिलावट में यक़ीन नहीं रखते थे, इसलिए ऐसी दवाओं की भी कोई ज़रुरत नहीं समझी गयी होगी." अपनी कौम की उन्नति के लिए बिना किसी पद की लालसा के संघर्ष करने वाले मच्छर ने एक ऐसा जवाब दिया, जो मिलावटी मच्छरमार दवाओं, सरकारी कमीशनखोरी और इसी बदौलत उनकी तेज़ी से बढ़ती आबादी से सम्बंधित था.
    "आपने सही कहा. कल पूरी रात हम लोगों ने उस मच्छरमार मशीन के ऊपर लेटे हुए ही गुज़ारी है, जिसके बारे में यह माना जाता है कि उसकी वजह से मच्छरों का ख़ात्मा हो जाता है." किसी ऐसे मच्छर के बच्चे ने जवाब दिया, जो इंसानी बेईमानियों से अच्छी तरह वाक़िफ था और बाकी  अपने पूर्वजों के अनुभवों से लाभान्वित होना चाहता था.
    "अब आदमी का खून भी इतना खराब हो चुका है कि उसे पीते हुए भी उल्टी सी आती है. जानते हो, ऐसा कैसे हुआ ?' इंसानी बापों की तरह अपने बच्चों को नासमझ समझते हुए बूढ़े मच्छर ने अपना जवाब देने से पहले उनसे सवाल करना ज़रूरी समझा.
    "जी, कैसे हुआ ?" औलादों ने ऐसे सवाल किया, जैसे इंटरनेट की पोर्न साइटों पर सब कुछ देख लेने के बाद इंसानी बच्चे अपने बापों से सवाल करें कि बच्चे कैसे पैदा होते हैं ?
    "जिन बातों से बचने के लिए इंसानी धर्म-शास्त्र रचे गए, वही सब इंसान के अन्दर भर गया है. ईर्ष्या, नफरत ,द्वेष और घ्रणा का ज़हर उसे भले ही नुकसान ना पहुंचा रहा हो, मगर उसका खून पीकर हम लोगों को ज़रूर उसके साइड इफेक्ट्स भुगतने पड़ेंगे." किसी कर्फ्यू ग्रस्त इलाके में अपनी आजीविका चलाने वाले बूढ़े मच्छर ने इतना कहा और ढंग के खून की तलाश में कहीं और उड़ चला. 

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