अतुल मिश्र
साल में जब तक दस-बीस रैलियां और चार-छह महारैलियां ना हों, लगता नहीं कि पार्टी जो है, वो अभी भी सत्ता में है. रैलियां तो सिर्फ़ विरोधियों को चिढ़ाने के लिहाज़ से निकाली जाती हैं कि लो. तुम्हें जो उखाड़ना हो हमारा, वो उखाड़ लो और महा रैलियां जनता को डराने के लिहाज़ से सही रहती हैं, इसलिए निकाली जाती हैं. लोगबाग जब बसों में ठूंस-ठूंस कर राजधानी की तरफ लाये जाते हैं तो रास्तों में पड़ने वाले गांव, कस्बों और शहरों के लोग कांप जाते हैं कि अगर इस पार्टी को अगली बार वोट नहीं दिया तो देख लो, ये जो ततैयों के छत्ते हैं और ये वो वाला हाल करेंगे कि किसी को बता भी नहीं सकते कि शरीर के किन-किन अंगों को किस-किस तरह से दुखी किया गया है ?
महारैली महान तो लगती ही है, डराऊ भी लगती है. इसे किसी महान शख्स की स्मृति में भी निकाला जाता है और जो ज़ाहिर है पार्टी का ही कोई दिवंगत नेता होता और इसीलिए वो आज के दिन महान कहलाता है. इस मौके पर उनके बारे में वह सब दोबारा से बताया जाता है, जो महारैली में आये लोगों को पहले से पता होता है और हर बार तालियां बजाने के काम आता है. इस दौरान जनता को यह बात भी दोबारा से बताई जाती है कि पिछली सरकार जिस पार्टी की थी, वह पूरी तरह से निकम्मी थी और इसीलिये अब हम आये हैं, ताकि वह जो सरकारी निकम्मापन है, वह अपनी सही पोज़ीशन में आ जाये यानि सुधर जाये. यह बात भी तालियां बटोरने और उस पार्टी को जलील करने के लिहाज़ से सफलता प्राप्त करती है.
पूरे सूबे की रेलें भी इन दिनों डरी-डरी सी सोचती रहती हैं कि "ये जो आदमी पर लदे आदमी जा रहे हैं, इनसे कुछ कहा जाये या नहीं ? कह दिया और ये लोग अपनी पर आ गए तो पता नहीं, पहले से खराब चल रहे डिब्बों की क्या पोज़ीशन हो ? लोग पता नहीं कौन-कौन से स्टेशनों से चढ़ रहे हैं ? एक तो यह कमबख्त चेन ही रेल वालों ने ग़लत लगाई हुई है, जिसे खींचकर कहीं भी गाड़ी रोक दी जाती है. किसी को अगर लघुशंका भी जाना हो तो वो डिब्बे में बने टॉयलेट में ना जाकर चेन खीच देता है कि भैया, बड़े जोर की लगी है, ज़रा जंगल में कर आयें."
महारैली की सफलता के लिए उन लोगों का आभार भी कई मर्तबा प्रकट किया जाता है, जो अपने वोट की तरह कीमती वक़्त को निकालकर बिना टिकिट बसों और रेलों से इतनी बड़ी तादाद में वहां पहुंचे हैं और बार-बार तालियां बजाकर इस महारैली को सफल बना रहे हैं. इसके बाद सब लोगों को उस तरह का खाना भी खिलाया जाता है, जिसे रोज़ाना हासिल करना इस मुल्क की एक बहुत बड़ी आबादी को आज भी सपने जैसा ही है. इसके बाद रैली पूरी तरह सफल मान ली जाती है.
2 comments:
Bahut badhiya lekh Atul ji....
achcha likha hai,vichar hona chahiye
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