कल सहर पे, यक़ीं उठ गया
Saturday, February 27, 2010 साहित्य
कल सहर पे, यक़ीं उठ गया
हर पहर पे, यक़ीं उठ गया
हर सुबह हम, मरे इस कदर
दोपहर पे, यक़ीं उठ गया
वो डगर तेरे घर की ही थी
जिस डगर पे, यक़ीं उठ गया
जो ना तट से मिली आज तक
उस लहर पे, यक़ीं उठ गया
ऐसे धोखे मिले, उम्र भर
हमसफ़र पे, यक़ीं उठ गया
जब तहद में चली शायरी
तो बहर पे, यक़ीं उठ गया
आदमी का ज़हर देखकर
अब ज़हर पे, यक़ीं उठ गया
हम रहे बेखबर, इसलिए
कल ख़बर पे, यक़ीं उठ गया
राम-अल्लाह, जब लड़ पड़े
इस शहर पे, यक़ीं उठ गया
-अतुल मिश्र
हर पहर पे, यक़ीं उठ गया
हर सुबह हम, मरे इस कदर
दोपहर पे, यक़ीं उठ गया
वो डगर तेरे घर की ही थी
जिस डगर पे, यक़ीं उठ गया
जो ना तट से मिली आज तक
उस लहर पे, यक़ीं उठ गया
ऐसे धोखे मिले, उम्र भर
हमसफ़र पे, यक़ीं उठ गया
जब तहद में चली शायरी
तो बहर पे, यक़ीं उठ गया
आदमी का ज़हर देखकर
अब ज़हर पे, यक़ीं उठ गया
हम रहे बेखबर, इसलिए
कल ख़बर पे, यक़ीं उठ गया
राम-अल्लाह, जब लड़ पड़े
इस शहर पे, यक़ीं उठ गया
-अतुल मिश्र
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