Thursday, February 18, 2010

धरने, प्रदर्शन और लाठियां

                             धरने, प्रदर्शन और लाठियां 
                                                     अतुल मिश्र 

    लाठियों का जो इतिहास है, वो ठीक से तो नहीं पता कि कितना पुराना है, फिर भी इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि जितना पुराना भैंसों का इतिहास है, निश्चित रूप से वह उतना पुराना तो होगा ही I 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' जैसे मुहावरे भी इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं. खुद को विद्वान् समझने वाले विद्वानों का भी यही मानना है कि भैंसों से पहले ही लाठियों ने जन्म ले लिया होगा I वरना भैंसों को हांक पाना बहुत मुश्किल हो जाता I जैसे-जैसे तरक्की हुई और खाली बैठे लोगों ने यह सोचना शुरू किया कि धरने और प्रदर्शन करने से बेहतर कोई और काम नहीं है, लाठियों ने अपनी सोच बदल दी I वे अब प्रदर्शनकारियों को खदेड़ने के काम आने लगीं I बीच में अगर किसी प्रदर्शनकारी का मन हुआ कि उसका नाम और फोटो भी अखबारों में छप जाये, तो उसने लाठीचार्ज के दौरान अपने सिर को लाठी के नीचे कर दिया कि फूट जाये तो बेहतर I
    किसी लाठी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जो सिर उसके नीचे ज़बरदस्ती आ गया है, वह किसका है ? किसी ग़ैर सत्ताधारी पार्टी के पदाधिकारी का है या उसके किसी चमचे का ? उसे तो ऊपर वाले ने जो काम सौंपा है, वह उसे पूरा कर रही है, बस I मोबाइल के ज़माने में लाठियों को अब चार्ज भी किया जाने लगा है I 'लाठीचार्ज' शायद उसी को कहा जाता है. इन्हें कैसे और क्यों चार्ज किया जाता है, यह पुलिस को बेहतर पता होगा I हमें तो केवल इतना ही पता है कि पुलिस ने लाठीचार्ज किया और उसमें इतने लोग काम आ गए और बाकी के हालात ऐसे हैं कि कभी भी इस ग़म से भरी दुनिया को छोड़ कर निकल लें I
    महिलाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ कोई ग़ैर सत्ताधारी पार्टी का प्रदर्शन हो रहा है और महिलायें उसमें सबसे आगे ना हों तो लगता नहीं कि उनके साथ कुछ हुआ है I इसीलिए सत्ताधारी पार्टी को हटाने की मुहिम के तहत इधर, महिलाओं ने अपना प्रदर्शन शुरू किया और उधर, लाठियों ने I किसी लाठी ने यह नहीं सोचा कि ये महिलायें हैं और अबला हैं I सबके साथ बराबरी का व्यवहार करते हुए लाठियां चल दीं यानि लाठीचार्ज हो गया I हर लाठी  और प्रदर्शनकारी का सिर या अंग विशेष जानता है कि अब क्या होना है, मगर 'सर फुटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं', वाले ग़ैर राष्ट्रीय गीत की तर्ज़ पर बिना झुके सिर जो हैं, वो फूट जाते हैं I 
    एक शब्द होता है 'लठियाना' I पुलिस-अफसर चाहें दिल्ली के हों या लखनऊ के, सब इसी का इस्तेमाल करते हैं कि "ऊपर से आदेश हैं कि सबको लठियाना है" I अब यह जिनको लठियाना है, उनकी किस्मत कि वे कितने लठिया पाते हैं खुद को ? हाथ-पैरों के अलावा सिर भी इन लाठियों द्वारा लाठियाया जाता है I जिस प्रदर्शनकारी को यह महसूस हुआ कि अगर उसे नहीं लाठियाया गया तो हाईकमान की निगाहों में उसकी पोज़ीशन खराब होगी, तो उसने अपना सिर किसी चलती हुई लाठी के नीचे दे दिया और फिर उसे पकड़कर बैठ गया कि "हाय, मार डाला I" सियासत यूं ही नहीं हो जाती I उसके लिए धरने, प्रदर्शन और लाठियां ज़रूरी होती हैं, ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रुरत पार्टी में अपनी जगह बनाने के काम आये I