अतुल मिश्र
कवियों या शायरों से हमें कोई परहेज़ नहीं है. वे अपनी शेरो-शायरी जारी रखें, मगर उनसे केवल इतनी सी गुज़ारिश है कि वे हमें कभी अकेले में मिल जाएं तो अपनी ताजा-तरीन रहने वाली चंद लाइनें न सुनाएं. सिरदर्दी के लिहाज़ से हमें इनकी ये चंद लाइनें कतई सूट नहीं करतीं. इस चक्कर से बचने के लिए यद्यपि हमने ऐसी गलियों से गुज़रना भी बंद कर दिया है, जहां इनके निवास-स्थान हैं और जहां की सड़कों पर टहलते हुए वे हम जैसे श्रोताओं कि तलाश में रहते हैं. मगर हमारा भाग्य ही कुछ ऐसा है कि कोई न कोई शायरनुमा कवि हमें मिल ही जाता है.
कल एक ' नई कविता ' जैसी किसी अकविता वाली विधा के कवि हमें अपनी उस गली में टहलते हुए मिल गए, जहां से हमने किसी भी हालत में न गुजरने कि कसम खाई हुई थी. ' नो एंट्री एरिया ' में प्रवेश करते किसी वाहन कि तरह हमें किसी कविताई साजिश के तहत उन्होंने रोक लिया और अपनी कविता न लगने वाली वह कविता सुनाने कि बात करने लगे, जिसे हम सपने में भी अगर सुन लें तो डर के मारे उठ कर बैठ जाएं. हमने उनसे अपनी तबियत खराब होने और उसी वजह से दवा लेने जाने की मजबूरी रखी तो उन्होंने उसी पर अपनी एक ऐसी कविता सुना दी, जिसमें तबियत, दवा और दर्द जैसे अल्फाज़ तो हमें सुनाई दिए, मगर उनका प्रयोग-औचित्य कतई समझ में नहीं आया.
इसी तरह एक बार परिचित होने का हमारा दुर्भाग्य और उनका सौभाग्य लिए एक शायर हमें ट्रेन में मिल गए. दुआ-सलाम के बाद उन्होंने बताया कि पिछले दिनों वे दुबई के एक मुशायरे में गए थे और जिन-जिन शेरों पर उन्हें वहां दाद मिली थीं, उन्हें वे हमें सुनाना चाहते थे. हमने उनके खतरनाक इरादों को पहले ही भांप लिया था, इसलिए बाथरूम के बहाने से अपने सामन सहित हम किसी और सीट पर जाकर बैठ गए. वे भी कम नहीं थे. हमें ढूंढते हुए वहीँ पहुंच गए और अपने तमाम शेर हमारी नज़र करते हुए डिब्बे के और लोगों को भी सुना डाले.
समझ में नहीं आता कि जब हमारे मुल्क में इतनी वास्तविक और कागजी गोष्ठियां होती हैं तो ये कवि लोग श्रोताओं कि तलाश में इधर-उधर क्यों भटकते हैं ? शासन-प्रशासन क्यों नहीं इन लोगों पर रोक लगाता? ' कविता सुनाना एक सामजिक अपराध है, ' या' जो कविता का हुआ शिकार, उसने फूंक दिया घर-बार, ' जैसे नारे इन कवियों कि गलियों में तो लगाएं ही, इनके मकानों के बाहर भी चिपकवा दें, ताकि श्रोताओं पर घात लगाए बैठे इन कवियों के हौंसले ज़्यादा बुलंद न होने पायें. वर्ना ऐसे कवियों को कुछ हो या न हो, श्रोताओं की एक बड़ी आबादी आगरा या रांची के पागलखानों में मौजूद मिलेगी और जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी प्रशासन पर लाद दी जायेगी.
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