Monday, April 5, 2010


अतुल मिश्र
वह एक आदर्श भारतीय बेरोजगार था. देशभक्ति के साथ ही बेरोज़गारी भी उसके अन्दर कूट-कूटकर समाई हुई थी. पढ़ा-लिखा होने के बावज़ूद बेरोज़गार रहना, जहां उसकी देशभक्ति में कई सारे चांद लगा रहा था, वहीँ, उसकी बेरोज़गारी से उसके अटूट रिश्ते को भी दर्शा रहा था. उसे इस बात का कभी ग़म नहीं रहा कि वह रोज़गारविहीन है और पता नहीं कब तक इन्हीं हालातों में रहेगा ? वह जानता था कि वह जब तक चाहे, तब तक ऐसे ही रह सकता है. यह उसकी सहनशीलता और बाप की ऊपरी कमाई की सूचना देने को काफी था कि कितनी है ? ऊपर वाले पर वह उतना ही भरोसा करता था, जितना सरकार देश से बेरोज़गारी का नामोनिशान तक मिटा देने में करती है.

कई मर्तबा वह नौकरी की तलाश में अपना क़स्बा छोड़कर शहर भी गया था, मगर नौकरी ना मिलने के ग़म में अंग्रेजी सिनेमा की अल्पवस्त्री कन्यानुमा महिलाओं को देखकर ही हमेशा वापस आ गया. उसके फादरनुमा बाप को इससे तकलीफ़ हुई और उन्होंने उसे एक कमरा लेकर वहीँ शहर में रहने की अनुमति दे दी कि जब तक नौकरी ना मिले, वहीँ रहकर कोशिश करते रहो. इसका परिणाम यह हुआ कि वह अपने लिए नौकरी तो नहीं तलाश पाया, मगर अपने लिए एक ऐसी लड़की ज़रूर तलाश लाया, जिससे शादी करके वह अपने बाप की तरह अपना घर भी बसाने लायक कहा जा सके. भारतीय बेरोजगारों के साथ यह दिक्कत यहां की गर्म जलवायु की वजह से होती है या जिस भी वजह से, मगर होती ज़रूर है. वे लड़की तलाशने के बाद ही यह सोचते हैं कि अब नौकरी भी तलाश लेनी चाहिए.
इंटरव्यू देते वक़्त वह यह कभी नहीं सोचता था कि नौकरी मिल ही जायेगी. उसे पता ही नहीं था, बल्कि पूरा यक़ीन था कि उसकी तमाम मार्कशीटें देखने के बाद उसे नौकरी देने वाले की नौकरी भी चली जाएगी, इसलिए वह तटस्थ होकर नौकरियों के आवेदन भेजने में लगा था. इसकी पूरी सूचना वह मकान-मालिक की लड़की के अलावा अपने बाप को भी दे दिया करता था कि सनद रहे और वक़्त ज़रूरत नौकरी ना मिलने पर किये गए कुतर्कों के जवाब देने के काम आये. जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि वह एक आदर्श बेरोज़गार था और वही बने रहने की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील था.

शहर में रहकर जो सबसे बड़ी उपलब्धि उसने अपने बलबूते पर हासिल की, वह अपने मकान-मालिक की लड़की को किन्हीं प्राकृतिक और बेहद गोपनीय कारणों से पटाने की थी और जिस पर उसके बाप ने भले ही नाज़ ना किया हो, मगर मां को पूरा यक़ीन था की बेटा शहर से कुछ ना कुछ हासिल करके ज़रूर लाएगा. यही उसका मकसद था और यही उसकी अंतिम उपलब्धि थी. अंतिम इसलिए कि उसके बाद की तमाम उपलब्धियां, जैसे बच्चे, राशन और अब हिंदी फिल्में, इनके लिए उसने अपने बाप के अलावा ईश्वर को चुन रखा था कि वे उसे हासिल करके देंगे. इसी आदर्श को लेकर कस्बे के कई अन्य बेरोज़गार भी शहरों की ओ़र रवाना हुए, मगर वे सफल नहीं रहे, क्योंकि उनके बापों की ऊपरी कमाई नहीं थी. यही एक वजह थी, जो उसे आज भी एक सफल बेरोज़गार बनाए हुए थी.

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