Wednesday, March 10, 2010


आरक्षण, सदन और हंगामे

Posted Star News Agency Thursday, March 11, 2010 
अतुल मिश्र
महिलाओं को आरक्षण मिलने पर देश भर में खुशियां मनाई गईं. होली पर बचा हुआ रंग लगाकर पिछली तमाम होलियों को रिजेक्ट किया गया और दोबारा से होली मनाई गई. कई जगहों पर दीवाली पर बचे कान-फोडू पटाखे भी छोड़े गए. कुल मिलाकर, वह सब किया गया, जिससे यह पता चल सके कि वे वाक़ई बहुत खुश हैं. पुरुषों को भी लगा कि हो ना हो, एक दिन उनको भी आरक्षण मिलेगा. ऐसा अगर नहीं हुआ तो बराबरी के हक़ वाली कहानी अधूरी रह जायेगी. कई जगह, जब गाने-बाजे के साथ महिलाओं के जुलूस निकले तो पुरुषों ने अपनी दुकानें समेटनी शुरू कर दीं कि अब फिर से कोई नई मुसीबत आने वाली है. कुछ लोगों ने अपने गल्ले में से रुपये निकालकर अपने हाथों में ले लिए कि किसी नेता के जन्मदिन के नाम पर कहीं कुछ चंदा-वंदा ना देना पड़ जाए.

इधर, पार्लियामेंट यह सोच कर दुखी थी कि कोई ढंग का काम करो तो भी उसे शोर-शराबा करने के 'प्वाइंट ऑफ व्यू' से नकार दिया जाता है कि यह जो काम हमारी सरकार नहीं कर पाई, इस सरकार ने कैसे कर दिया और यह शराफत के ख़िलाफ है. ढंग का काम ना करो तब तो मुसीबत है ही कि यह काम उस ढंग से क्यों नहीं किया गया, जिस ढंग से हमारी पार्टी और उसके नेता चाहते थे कि हो. या इतनी बात ही हंगामे काटने के लिए काफी होती है कि ढंग का काम करते वक़्त उन्हें विश्वास में क्यों नहीं लिया गया? हम पर विश्वास करके अगर विश्वास में ले लेते तो क्या घिस जाता?

जब तक सदन की कार्यवाही कई मर्तबा स्थगित ना हो, लगता नहीं कि वहां किसी किस्म की कोई कार्यवाही हो रही है. ऐसा लगता है जैसे अपना वक़्त काटने को कई सारे लोग एक जगह इकट्ठे होकर यह विचार करने को बैठे हों कि अब किस पर और क्या विचार करना है? किसी ने अपना कोई विचार रख दिया तो इसी बात पर हंगामा कि यह विचार रखने की ज़रुरत ही क्या थी, जब कि इस पर पहले ही कई मर्तबा विचार हो चुका है. या किसी ने देश की तरक्की को लेकर अपना कोई सर्वथा मौलिक विचार रख दिया तो विपक्षियों की ओर से इसे लोकतंत्र के ख़िलाफ एक सोची-समझी साज़िश करार देते हुए इसी बात पर हंगामा कि यह विचार उनके मन में आया ही कैसे कि वे इसे विचारेंगे और हम उसे ज्यों का त्यों मान लेंगे?

'महिला-आरक्षण बिल' को पास करने से पहले इतने बवाल नहीं हुए, जितने उसके पास होने के बाद अब रोज़ाना सदन में हो रहे हैं. सरकार को किसी वजह से बाहर से समर्थन दे रहे कुछ दलों के नेता इस बात से नाराज़ हैं कि हमारे सांसदों को मार्शलों की मार्फ़त बाहर निकलवाने वाली सरकार ने हम पर यह विश्वास क्यों नहीं किया कि थोड़ी बहुत बहसबाजी के बाद हम भी इसे पास करने में अपना समर्थन दे सकते थे? सरकार में रहना भी एक अच्छी लगने वाली मुसीबत का काम है. ख़ासतौर से, अगर वह बाहर से समर्थन दे रहे कुछ सांसदों के बलबूते टिकी ना रहने के मुगालतों से भरी हो.

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