Saturday, March 27, 2010

सपने, कुछ दर्दीले सपने



          अतुल मिश्र 

सपने, कुछ दर्दीले सपने, 
रहते संग रात भर अपने, 

ग़ज़लें बन-बनकर जायेंगे- 
कल को अखबारों में छपने !

लम्बे इंतज़ार भी अब तो 
लगते ग़ैर ज़रूरी नपने !

हमको कितना रुलवाया है 
उसके आ जाने की गप ने !

रिश्ते कितने बने-बिगाड़े 
एक अदद चाय के कप ने !

लोग राम-मंदिर जाते हैं 
नाम सिर्फ़ रोटी का जपने !