Thursday, March 25, 2010

रामभरोसे लाल और उनका हिंदी अध्यापन



                                     अतुल मिश्र  

    हिंदी का अध्यापक होने की पीड़ा भोग रहे राम भरोसे लाल लंगोटी के साथ ही नियमों के भी बड़े पक्के थे. सुबह तीन बजे उठकर घरवालों को बिना जगाये वे अपने नित्य कर्मों में लग जाया करते थे. उनका मानना था कि असली ब्रहम मुहूर्त तीन बजे से ही शुरू होता है, इसलिए हर इंसान को इतने बजे उठकर ही अपने नित्य कर्मों को नित्य करना चाहिए. हिंदी के पुराने कवियों की कवितायें पढ़ाते-पढ़ाते वे आधे कवि बन चुके थे. उनका आधा कवि बनना लोग मानते थे, जबकि वे मानते थे कि वे सूर, तुलसी और जायसी के स्तर की कवितायें लिख रहे हैं और हो ना हो एक दिन उनको भी कोर्स की किताबों में लोग पढ़ना शुरू करेंगे. यही वजह थी कि अपनी लड़ाका बीवी के उठने से पहले ही वे काव्य-रचना में लग जाते थे.
    सुबह तीन बजे को ब्रह्म मुहूर्त मानना उनकी पारिवारिक मज़बूरी थी. रात में बीवी की झिकझिक सुनने से बेहतर वह यह समझते थे कि जल्दी सोने को शास्त्रों में लिखा होने की वजह बताकर जल्दी सो लिया जाये. ट्यूशन उन पर इसलिए नहीं थे कि हिन्दुस्तान में इस विषय को हर छात्र खुद ही पढ़कर समझ लेने की क़ाब्लियत रखता था. गद्य या पद्य की व्याख्या हर छात्र अपने ढंग से कर लेता था और इसके लिए वह अपने बापों के पैसे ख़र्च  करवाना कोई समझदारी नहीं समझता था. यही वजह थी कि उनकी बीवी कॉलिज से आने के बाद से उनसे खार खाए रहती थी कि किस आदमी के गले उसके बाप ने उसे बांध रखा है ? तीन-तीन महीने की तनख्वाहें एक साथ मिलना भी उसकी झिकझिक को जायज ठहराने के लिए पर्याप्त वजह था.
    अपने मज़बूरी जनित हिसाब से बनाए गए ब्रह्म मुहूर्त को वे सबसे अच्छा मानते थे. अपने छात्रों को भी वे यही समझाते थे कि तीन बजे उठकर जो लोग अध्ययन करते हैं, वे परीक्षाओं में उतने ही नंबर पाते हैं, जितने के कि वे हक़दार हैं. उनकी इस बात को अमूमन छात्र यह मानकर सिर हिलाते हुए स्वीकार लिया करते थे कि इस प्रक्रिया में उनका कुछ ख़र्च नहीं होता था. कबीरदास के दोहों की व्याख्या वे इस तरह करते थे कि अगर कबीरदास भी सुन लें तो यह सोचने को मजबूर हो जाएं कि मैंने तो ऐसे सोचकर यह दोहा लिखा ही नहीं था और यह किस किस्म की व्याखा की जा रही है. तुलसी और जायसी तो निश्चित रूप से अगर इनकी व्याख्याएं सुन लेते तो अपना सिर पकड़कर खुद ही उसे धुन लेते कि उन्होंने ऐसी कवितायें लिखी ही क्यों, जिनके अर्थ हमारी तरह ना निकालकर लोग अपने हिसाब से निकालने में लगे हैं और आने वाली नस्लों को भी बताये जा रहे हैं कि असली अर्थ यही है.
    रामभरोसे लाल को आज भी इस बात का मलाल है कि अपने पिताजी की गाढ़ी मेहनत की कमाई ख़र्च करके वे सिर्फ़ हिंदी के अध्यापक ही क्यों बने ? उन विषयों में से किसी एक के क्यों नहीं बने, जिनके बनने पर उन्हें ट्यूशन मिल जाते और बीवी के डर से यूं सुबह तीन बजे उठकर कवितायें नहीं लिखनी पड़तीं. नियमों के वे इतने पक्के थे कि नियम भी उनसे खौफ खाते थे कि अगर निभने में ज़रा सी भी ग़लती की तो ना जाने क्या हश्र हो उनका ? सबसे पहले वे कांसे के उस दुर्लभ लोटे से गरारे करते थे, जो उनके पिताजी उन्हें इसी काम के लिए छोड़ गए थे. इस दौरान वे शास्त्रीय गायन जैसे स्वर निकालकर अपनी कविताओं की धुनें भी सुनिश्चित कर लिया करते थे. कुल मिलाकर, वे एक आदर्श हिंदी के अध्यापक का जीवन जी रहे थे. यह अलग बात है कि अज्ञानी होने की अहम् वजह से उनकी लड़ाका बीवी इस बात को कभी समझ नहीं पाई थी.

No comments: