Wednesday, March 24, 2010

आलसी, जम्हाइयां और अंगड़ाइयां



                            अतुल मिश्र 


    आलसी लोग दुनिया के हर कोने में पाए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि वे केवल भारत की ही बपौती हैं कि यहीं मिलेंगे और कहीं नहीं. वे ऐसे टापुओं पर भी मिल सकते हैं, जहां अभी सिर्फ़ दस-बीस आदमी ही पहुंच पाए हैं. वहां भी अलसाने के लिहाज़ से आलसी पहुंचने की क़ाबिलियत रखते हैं. देश और मज़हब की सीमाओं से अलग, वे कहीं भी और किसी भी रूप में मिल जायेंगे. भारत के आलसी ज़रा ज़्यादा मशहूर हैं, बस, इतना सा फर्क है. यहां के आलसियों की एक बहुत बड़ी आबादी सरकारी महकमों में काम ना करने की गरज से काम कर रही है. ये लोग अगर बीस मर्तबा अंगड़ाइयां लेंगे तो पचास मर्तबा जम्हाइयां लेकर यह घोषित कर देंगे कि काम ना करने का काम वे पूरा कर चुके हैं और अब बाकी कल देखा जाएगा. 
    हर आदमी का अलसाने का अपना अलग अंदाज़ होता है. आप किसी सरकारी अफसर के सामने इस उम्मीद से बैठे हैं कि सिर्फ़ इतना पूछ सकें कि आपके काम का क्या हुआ तो आपको एक ही अलसाया हुआ जवाब मिलेगा और जो एक लम्बी अंगड़ाई के दौरान ही दे दिया जाता है कि " अब देखिये,  कब तक हो पाता है ? कोशिश तो भतेरी कर रहे हैं कि हो जाये. " इसके बाद वह अपनी अंगड़ाई के समर्थन में एक गहरी जम्हाई लेकर उसे आपके मुंह पर छोड़ देगा कि चले जाएं, वरना यहां जम्हाईयों की कोई कमी नहीं है. आप ने कहा कि " ज़रा देख  लीजियेगा. " तो एक लम्बे शब्दोच्चारण के बाद जवाब मिलेगा, " देsssssssख लेंsssगे. " शब्द भी आलसी अफसर के पास जाकर आलसी हो जाते हैं और ऐसे निकलते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा अहसान कर रहे हों आप पर.
    कुछ लोग सोचने में भी आलस्य करते हैं. उनकी सोच भी अलसाई हुई होती है कि ' अभी कौन सी आफत आ रही है, जो अभी सोचा जाये ? बाद में सोच लेंगे. भतेरा वक़त पड़ा है.' वे सोचते वक़्त भी कई मर्तबा सोचते हैं कि अभी सोचें या नहीं ? वे अपने फालतू वक़्त को भी सोचने में बर्बाद नहीं करना चाहते. सोचने के बारे में सोचते-सोचते वे घंटों निकाल देते हैं और फिर यही सोचते हैं कि अब सोचना बेवकूफी है, क्योंकि जिस काम पर जाने के बारे में वे सोच रहे थे, वह होने का वक़्त निकल चुका है. आलसियों के बारे में कई दोहे भी लिखे गए हैं, जो अजगर, नौकरी और काम से सम्बंधित होते हैं, मगर हम उन्हें सोचने में अभी आलस्य कर रहे हैं, इसलिए अभी नहीं बता पायेंगे. 
    यह कहना तो ग़लत है कि ठन्डे मुल्कों के लोग कम अलसाते हैं और गरम मुल्कों के लोग ज़्यादा. सब जगह एक से हालात हैं. जो संस्थाएं आये दिन अखबारों में छपवाने के लिए इस किस्म के सर्वे करती रहती हैं कि फ़लाने मुल्को के लोग कम आलसी होते हैं और फ़लाने मुल्कों के ज़्यादा, वे ग़लत कहती हैं. हर आलसी, चाहे वो अमरीका का हो या इंडिया का, अलसाने के लिए जम्हाईयों या अंगड़ाइयों का ही सहारा लेता है और जो एक ही शैली में ली जाती हैं. हम किसी और की क्या कहें, हम खुद कई दिनों से यह सोच रहे थे कि आलसियों पर कोई लेख लिखा जाये, मगर आलस्य कर गए कि यार, लिख लेंगे. अब बामुश्किल लिख पाए हैं, ताकि सनद रहे और आलसियों के कभी भी पढ़ने के काम आये.
    

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