Monday, March 8, 2010


अतुल मिश्र
सक्रिय पत्रकारिता में निष्क्रिय रहने के बाद जब हमने स्वतंत्र स्तम्भ-लेखन में बिना किसी की परमीशन के पदार्पण कर दिया तो एक टी.वी. चैनल ने हमें इस लायक समझा कि हमारा बाकायदा एक इंटरव्यू लिया जाये. जुगाडू संस्कृति में आस्था रखने वाले हमारे एक मित्र ने अपने चैनल के ऑफिस से फ़ोन करके बताया कि यार, तुम्हारा इंटरव्यू लेना है, तैयार रहना. हमने अपनी साप्ताहिक शेव को साफ़ करने में इतना वक़्त दिया कि शीशे के सामने विभिन्न किस्म के सवालों के जवाब में बनाए जाने वाले विभिन्न किस्म के चेहरे बना कर देख सकें. इसके बाद जो दूसरा सबसे अहम काम हमने किया, वह यह था कि कोई ऐसा कुरता-पायजामा अपनी अलमारी के किसी अज्ञात कोने से ढूंढ़ निकाला जिससे, यह बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर हो कि हम वाक़ई स्वतंत्र-लेखन के क्षेत्र में आने के दंश झेल रहे हैं.

वक़्त की पाबंदी से कोई वास्ता ना रखने वाले हमारे वह मित्र निर्धारित वक़्त के आसपास ही घर पहुंच गए. विडियोग्राफर ने अपने और कमरे के आकार के हिसाब से अपनी पोज़ीशन ले ली. मित्र ने अपना माइक हमारे मुंह में बिना घुसेड़े हमसे बातचीत शुरू की.

"खोजी पत्रकारिता से इस तरह संन्यास लेने की वजह ?" मित्र ने पहला सवाल ही कुछ इस किस्म का किया कि हमने शीशे के सामने चूंकि उसका कोई रियाज़ ही नहीं किया था, इसलिए सकपका गए.

"अच्छा सवाल किया आपने." हमने यह कहते हुए इसका सही लगने वाला जवाब तलाशने की कोशिश में एक निगाह शून्य की तरफ इस उम्मीद से डाली कि शायद वहीँ से कुछ हासिल हो जाये. "अब यह तो वक़्त की बात है," वक़्त पर इल्ज़ाम लागते हुए हमने कहा, "दरअसल, खोजी पत्रकारिता में अब वह बात नहीं रही, जो कभी हमारे ज़माने में हुआ करती थी." इस ज़माने को कोसे बिना हमने अपनी बात कहने की कोशिश की.

"चलिए माना, लेकिन आपने व्यंग्य को ही अपने स्वतंत्र-लेखन के लिए क्यों चुना ? और भी तो विधाएं थीं ?" यह सवाल भी अनापेक्षित था और इसका कोई पूर्वाभ्यास हम शीशे के सामने नहीं कर पाए थे.

"मेरी शुरुआत ही व्यंग्यचित्र और व्यंग्य कविताओं के लेखन से हुई थी, तब में नवीं क्लास में पढ़ता था, जब पहला कार्टून नवभारत टाइम्स में छपा. इसके बाद फिर लगातार छपता रहा. खोजी पत्रकारिता 'माया' पत्रिका के दिनों की बात है. तब दिल्ली में 'हिन्द्वार्ता' न्यूज़ एंड फीचर्स का सम्पादक भी था. वे जवानी के दिन थे." हमने अपनी जवानी के दिनों की खुराफातों का स्मरण करते हुए हंसकर जवाब दिया और जिसका हम शीशे के सामने रियाज़ कर ही चुके थे.

"अब कैसा महसूस कर रहे हैं ?" हमें रुलाने वाला सवाल पूछकर हमारे मित्र को जो सुकून मिल रहा होगा, उसका हमने अंदाजा लगा लिया था.

"बहुत अच्छा. इतना अच्छा कि आपको बता भी नहीं सकते. कोई बंधन नहीं. कोई बौस नहीं कि यह काम दस दिन से यूं ही पड़ा है और क्यों नहीं हुआ ? अपने मन के राजा हैं अब हम." अपना यह जवाब देते हुए हमने उन तमाम दुश्वारियों को एक साथ गिन डाला, जो इन दिनों 'मन के राजा' होने की वजह से ही हमारे सामने पेश आ रही थीं.

हमारा इंटरव्यू लेने के बाद टी.वी. चैनल वाला मित्र तो नाश्ता करके चला गया, मगर हमारे सामने कई सवाल खड़े कर गया और जो स्वतंत्र-लेखन, अखबारी घाटों, राशन और महंगाई से संबंध रखता था.