पत्र लिखूं क्या, समझ न पाता, बाबूजी , दिल्ली आकर अब पछताता, बाबूजी,
पढ़-लिखकर भी कहीं नौकरी नहीं मिली- इस बारे में क्या बतलाता, बाबूजी ?
अब गद्दी के नीचे अपनी डिग्री रख, रिक्शा में दिन-रात चलाता, बाबूजी !
एक पुलिस वाला कल मुझको पीट गया - मैं उस पर कैसे चिल्लाता, बाबूजी !
माँ पूछे, तो उसको झूठ बता देना - " तेरा बेटा खूब कमाता ", बाबूजी !
अभी सिर्फ़ दस-बीस रुपये बच पाते हैं - वरना पैसे घर भिजवाता, बाबूजी !
सोचा करता, कहीं नौकरी पड़ी मिले - इसीलिए संसद तक जाता, बाबूजी !
2 comments:
नमस्कार अतुल जी, अरुणा जी की फेसबुक प्रोफाइल के द्वारा आप तक पहुंचा.... आपको पढ़ कर बहुत अच्छा लगा| यह पत्र जिस तरह बेरोजगारी का हाल बयान करता है...किस इस बेरोजगारी को हमारी सर्कार इतनी आसानी से समझ पाती...
शुभकामनाएं...
कुछ दिल से....
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