Tuesday, December 15, 2009





अतुल मिश्र
रात के उतने बजे थे, जितने बजे डरावनी और भूतिया फिल्मों के फिक्स होते हैं कि इतने बजे सही रहेंगे! ब्लड प्रेशर हाई होने की वजह से बिजली जो है, वो लगातार कड़क रही थी! आवारागर्दी करने के लिहाज़ से जो हवा चल रही थी, वह सांय-सांय कर रही थी! इस आवाज़ में शामिल हल्की सीटियों की आवाज़ जहां एक ओ़र माहौल को और भी डरावना बना रही थी, वहीँ आदमी और हवा की आवारागर्दी में एकरूपता भी प्रदर्शित कर रही थी! बिजली बार-बार कड़ककर अँधेरे को डराने में लगी हुई थी!

बारिश की बूँदें शायद हवा की आवारगी को सुखद मानते हुए उसके साथ ही उड़ रही थीं! सड़क के दोनों ओ़र खड़े सूखे पेड़ों की टेडी-मेडी टहनियों को देखकर यह कन्फर्म हो रहा था की यहाँ आसपास ही कहीं वन-विभाग का दफ्तर भी ज़रूर होगा! बहरहाल, दफ्तर तो नहीं, मगर एक ऐसी हवेली ज़रूर मौजूद थी, जो बाहर से तो कांग्रेस पार्टी की तरह बहुत भव्य लग रही थी, मगर अन्दर पहुंचने पर पता चलता था कि वह तो भाजपा की तरह लुटी-पिटी कोई इमारत है और उल्लूओं के लोटने के लिए ही इस अवस्था को प्राप्त हुई है!

कुल मिलाकर, बरसात की वह रात इसलिए भी कभी नहीं भूली जा सकती कि इस रात से पिछली वाली रात ही टी. वी. पर मौसम के पूर्वानुमान के अनुसार इस क्षेत्र में सूखा पड़ने की संभावना जताई गयी थी! ( हमारी इस डरावनी कहानी की कास्टिंग में मौसम विभाग को भी अंग्रेजी में 'थैंक्स' लिखा जाएगा, क्योंकि मौसम को उसकी घोषणा के विपरीत मान कर ही हमने कहानी की शुरुआत की थी! ) अचानक, जो कि हमेशा अचानक ही दिखाया जाता है, नायक और नायिका के साए पानी में गीले ना हो सकने की अहम् वजह से इस हवेली के अन्दर प्रवेश करने के लिए दरवाज़े के पास आकर खड़े हो जाते हैं! नायिका के अल्प वस्त्र उससे इस तरह चिपके पड़े हैं, जैसे उन्हें सुखाने के बहाने बदन से हटाने के भावी कार्यक्रम की भनक लग गयी हो और सेंसर बोर्ड की वजह से वे पूरी तौर पर इसके लिए राज़ी ना हों!

हवेली के दरवाज़े पर नायक का वाटर प्रूफ घड़ी पहने हाथ दिखाई देता है, जिससे एकदम ज़ाहिर हो जाता है कि वह नायिका के सतीत्व की रक्षा के लिए उसे लेकर अन्दर आना चाहता है! दरवाज़ा चूं-चर्र की आवाज़ के साथ ही कुछ इस अंदाज़ में खुलता है, जैसे पूरा खुलने से इनकार करने के मूड में हो! साउथ इंडियन नेताओं की शक्ल की कुछ चिमगाददें दरवाज़े से ऐसे बाहर निकलती हैं, जैसे यूपीए सरकार में शामिल होने के लिए सीधे दिल्ली जाने की जल्दी में हों!

मकड़ी-मकड़ों के आपसी सहयोग से बने विशालकाय जले वातावरण की भयावहता में और इज़ाफा कर रहे थे! नायक-नायिका कैमरामैन और उसकी पूरी टीम की मौज़ूदगी में अन्दर की ओ़र अपने कदम रखते हैं और यहीं पर 'कट' की आवाज़ सुनाई देती है, जो किसी भूत की नहीं, बल्कि भूतनुमा फिल्म-डायरेक्टर के मुंह से निकली होती है! सब डर जाते हैं!

रात का अँधेरा, कड़कती बिजली, सांय-सांय करती आवाज़, भीगे बदन नायक-नायिका, उल्लू, चिमगादड़, मकड़ी के जाले और अन्दर पड़े फूस पर लेटकर 'बदन में अगन' के तुकान्तों से भरा गाना सुनकर हवेली के तमाम भूत आश्चर्यचकित थे कि ये लोग तो हमसे भी बड़े भूत हैं, जो हमसे डरने की बजाय अजीब ख्वाहिशों से भरे गाने गाने में लगे हुए हैं! कहानी यहीं पर शर्म से अपना दम तोड़ देती है!

2 comments:

Mahima said...

sach uncle aap kine acche expressions daalte hain kahanion mein bhi !!
bahut acchi thi ::**!!**!!**::

अतुल मिश्र said...

Thnx, Mahima Ji !!