Sunday, December 13, 2009



ग़ज़ल 
आंधियां हैं, मगर जले, देखो,
एक शम्मां के हौंसले देखो,

कैसी मुश्किल में आज परवाने,
मिल रहे हैं यहां गले देखो !

रोज यादों की तरह आती हैं,
गर्दिशों के ये सिलसिले देखो!

जिनसे हमको बड़ी शिकायत थी,
कर रहे हैं, वही गिले देखो!

तेज़ बारिश है, वो शिकस्ता घर,
कैसे हालात में मिले देखो?

रोज इंग्लिश में बहस जारी है,
हिंदी कैसे, कहां चले, देखो?

जैसे उम्मीदे-इन्तिज़ार ढले,
शाम हर रोज यूं ढले देखो!

आ रही है गुलाब की ख़ुशबू,
इत्र कोई नहीं मेल देखो!

ज़िंदगी क्या है? मौत से पहले,
हमको शायद पता चले देखो!
-अतुल मिश्र


2 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

आंधियां हैं, मगर जले, देखो,
एक शम्मां के हौंसले देखो,

कैसी मुश्किल में आज परवाने,
मिल रहे हैं यहां गले देखो !

रोज यादों की तरह आती हैं,
गर्दिशों के ये सिलसिले देखो!

Bahut Khoob...

अतुल मिश्र said...

Shukriya, Firdaus Ji !!