Monday, November 2, 2009

पुस्तक समीक्षा
हिंदी साहित्य में व्यंग्य एक विशिष्ट विधा होते हुए भी इसकी पहचान आधुनिक काल में ही बनी। इससे पहले व्यंग्य को कभी महत्व नहीं दिया गया। इसे अलग धारा मानने से साहित्यिक समाज संकोच करता रहा। यों कहें कि वह व्यंग्य लेखकों से खुद को श्रेष्ठ मानता रहा तो गलत नहीं होगा। इस भावना को संभवत: पहले-पहल हरिशंकर परसाई ने चुनौती दी। व्यंग्य विधा के इस शिखर पुरुष ने साहित्य जगत को बता दिया कि जो प्रतिष्ठा काव्य, नाटक-एकांकी, उपन्यास और समालोचना को हासिल है, वह व्यंग्य को भी मिलनी चाहिए। इसके बाद व्यंग्य लेखन की जो परम्परा समृध्द हुई, उसका बहुत हद तक श्रेय शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल को जाता है।

अस्सी के दशक में युवा व्यंग्यकारों की नई पौध ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय और हरीश नवल आदि ने व्यंग्य विधा को आगे बढ़ाया। मगर दुर्भाग्य से साहित्य की इस विरल धारा को और समृध्द करने वाले नई पीढ़ी के हस्ताक्षर कम ही दिखाई देते हैं।

व्यंग्यकार को अपने लेखन के लिए तमाम बिम्ब और प्रतिमान समाज से ही ग्रहण करने होते हैं। ये ऐसे उपकरण हैं जिनसे वह सामाजिक बुराइयों की शल्यक्रिया करता है। शब्द का ब्रहमस्वरूप देखना हो तो व्यंग्य पढ़ना चाहिए। व्यंग्य लेखन मूलत: पत्रकार हो तो उसकी नजर और पैनी हो जाती है। सही मायने में वह लोकतंत्र का ही नहीं, समाज का भी प्रहरी होता है। वह समाज की गंदगी को भी अपनी लेखनी से साफ करता है।

सद्य: प्रकाशित व्यंग्य संग्रह 'भैंसिया गांव की भैंसें' के लेखक अतुल मिश्र पत्रकार रहे हैं। पत्रकारिता के दौरान उन्होंने देश की राजनीति समाज और मीडिया के भीतर विसंगतियों को करीब से देखा है। इसलिए जब वे लिखते हैं तो उनकी कलम की धार कई बार इतनी पैनी हो जाती है कि वह नश्तर की तरह लगती है। 'भैंसिया गांव की भैंसें' में संकलित रचनाओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि सामाजिक विसंगतियों को लेकर उनके मन में कितना विद्रोह है।

संकलन की पहली रचना में अतुल ने भ्रष्ट नेता के चरित्र को यों अभिव्यक्त किया है 'जो आदमी पूरे नेता को खा चुका है, उसका सूक्ष्म शरीर भी अतिरिक्त कैलोरीज की वजह से एक यमदूत के उठाने लायक नहीं होगा।' आतंकवाद पर लेखक की अपनी चिंता है। उन्होंने अपनी रचना में बिना फटे बमों का मानवीकरण कर दिया है, जो बात भी करते हैं। उसे लेखक ने इशारा किया तो एक बम बोला- 'लगता है यह फटने से पहले ही जब्त करा देगा। दूसरा बम समझदार था। उसने कहा- 'इसके हाथों में फटने की जिम्मेदारी लेने वाले लोग नाराज होंगे कि इस अखबार वाले के हाथों में ही क्यों फटे? आंखों देखा हाल छापने वाला मर गया तो कवरेज कौन करेगा!'

अतुल ने अपनी रचनाओं में इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों पर भी व्यंग्य किया है कि वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी किस तरह अटपटे सवाल करते हैं। जैसे मेनहोल में गिरे व्यक्ति से रिपोर्टर का यह सवाल कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं? एक पत्रकार दूसरे पत्रकार की गलतियां निकाले तो यह द्वेषवश माना जा सकता है मगर एक व्यंग्यकार जब पत्रकार की खामियां देखता है तो वह समालोचक की भूमिका में होता है, खासतौर से तब जब वह भ्रष्टाचार की तह में जाता हो। इसी तरह मीडिया में अपराध की बढ़ती खबरों को लेकर 'चैन से सोने दो, जाग जाओ' वाली रचना में उन्होंने टीवी पत्रकारिता पर भी व्यंग्य किया है।

शब्द की अभिव्यंजना का सबसे सार्थक प्रयोग व्यंग्यकार ही करता है। जीवित रहते हुए भी व्यक्ति भूतकाल में कैसे चला जाता है, यह नेता का भूत वाली रचना में देखा जा सकता है, जब लेखक से एक भूत सवाल करता है कि क्या लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं तो व्यंग्यकार ने सटीक टिप्पणी की- 'अपनी उम्र के हिसाब से उन्हें भी अब भूत ही कहा जाएगा।' यह एक साहसिक टिप्पणी है। इसी तरह ज्योतिषियों की गतिविधियों पर भी कालसर्प वाली रचना में बेबाकी से उनकी बखिया उघेड़ी है।

अतुल मिश्र ने कुत्ते का उदाहरण रख इंसानियत को भी झकझोरने की कोशिश की है। 'कुत्तों को कुत्ता न बोलें' रचना में उन्होंने लिखा है- 'कुत्तों को कभी कुत्ता न कहें, आदमी की तरह वे भी बुरा मान जाते हैं।' लेखक का कहना सही है कि हम 'आज का भविष्य' देख कर 'कल का भविष्य' बनाने में भरोसा करते हैं।' यही वजह है कि ज्यादातर भारतीय राशिफल में यकीन करते हैं। मगर ये राशिफल कितने बेतुके होते हैं, इसका अंदाजा खुद पाठकों को भी नहीं होता। कई बात तो यह अखबारों में रिपीट भी हो जाता है और पाठकों को पता भी नहीं चलता। 'अखबारी राशिफलों के भविष्य' में राशिफलों का कच्चा चिट्ठा खोला गया है।

अतुल मिश्र ने अपने व्यंग्य संग्रह में राजनीति से लेकर स्थानीय निकायों और भ्रष्ट अफसरों तक पर कलम चलाई है। वे यहीं नहीं रुके बल्कि चंद्रयान में सवार होकर अंतरिक्ष में जा रहे चार यात्रियों की बातचीत से मनुष्य की आदतों की ओर भी इशारा किया है। उनके निशाने पर पूरा समाज है। कोई कोना नहीं बचा, जहां वे न पहुंचे हों। जैसे अतुल ने एक रचना में अभिनेत्री मल्लिका को देखकर कब्र में जाने को तैयार बैठे बुजुर्गों की मनोवृत्ति को चित्रित किया है। उन्होंने लिखा है- 'किसी स्थानीय अखबार के हवाले से पता चला कि कब्रिस्तान के पास से मल्लिका के गुजरने पर दो मुर्दे जिंदा होकर उसके साथ चल दिए।'

व्यंग्य संग्रह 'भैंसिया गांव की भैंसें' सामाजिक विद्रूपताओं का आइना है। अतुल मिश्र ने इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी लेखनी से छुआ है। उनकी पैनी नजरों से कोई नहीं बचा। कई जगह ऐसी टिप्पणियां भी की हैं, जिनका साहस हिंदी के लेखक अमूमन नहीं कर पाते। संग्रह पठनीय है।
-संजय

पुस्तक : भैंसिया गांव की भैंसें
लेखक : अतुल मिश्र
प्रकाशक : प्रतिभा प्रकाशन, मुरादाबाद
मूल्य : दो सौ रुपए

No comments: